यदा यदा हि
धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
भावार्थ
: हे
भारत! जब-जब
धर्म की हानि
और अधर्म की
वृद्धि होती है,
तब-तब ही
मैं अपने रूप
को रचता हूँ
अर्थात साकार रूप से
लोगों के सम्मुख
प्रकट होता हूँ॥7॥
परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
।
धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे युगे
॥
भावार्थ
: साधु
पुरुषों का उद्धार
करने के लिए,
पाप कर्म करने
वालों का विनाश
करने के लिए
और धर्म की
अच्छी तरह से
स्थापना करने के
लिए मैं युग-युग में
प्रकट हुआ करता
हूँ॥8॥